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निश्चिति
हमें इस शान्त निश्चिति के साथ आगे बढ़ना चाहिये कि जो किया जाना है वह कर दिया जायेगा । ६ जुलाई, १९५४ *
निश्चिति : विश्वस्त और अचंचल, यह कभी तर्क नहीं करती ।
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विजय की निश्चिति : यह शोर नहीं मचाती, पर है निश्चित ।
भागवत कृपा
'परम प्रभु' ने संसार में अपनी 'कृपा' उसकी रक्षा करने के लिए भेजी है ।
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तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिये 'भागवत कृपा' के लिए-अगर न्याय अभिव्यक्त हो तो ऐसे लोग बहुत कम निकलेंगे जो उसके आगे ठहर सकें ।
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न्याय 'वैश्व प्रकृति' की गतिविधियों का कठोर युक्तियुक्त नियतिवाद है । रोग इसी नियतिवाद का भौतिक शरीर में विनियोग है । चिकित्सक का मन इस अपरिहार्य 'न्याय' की नींव पर खड़ा होकर ऐसी परिस्थितियां लाने की कोशिश करता है जिन्हें युक्तियुक्त रूप से अच्छे स्वास्थ्य की ओर ले जाना चाहिये । नैतिक चेतना यही चीज सामाजिक शरीर में और तपस्या आध्यात्मिक क्षेत्र में कार्यान्वित करती है ।
केवल 'भागवत कृपा' में ही वह शक्ति है जो 'वैश्व न्याय' के मार्ग में हस्तक्षेप कर सकती है और उसे बदल सकती है । अवतार का महान् कार्य है 'भागवत कृपा' को धरती पर प्रकट करना । अवतार के शिष्य होने का
९० अर्थ है 'भागवत कृपा' का यन्त्र बनना । माता तादात्म्य द्वारा वैश्व न्यायतन्त्र के पूर्ण ज्ञान के साथ, तादात्म्य द्वारा 'भागवत कृपा' की महान् वितरक हैं ।
और उनकी मध्यस्थता द्वारा भगवान् के प्रति सच्ची और विश्वासपूर्ण अभीप्सा की हर गति, उत्तरस्वरूप 'भागवत कृपा' के हस्तक्षेप को नीचे उतार लाती है ।
हे प्रभु ! कौन है जो तेरे सामने खड़ा होकर पूरी सचाई के साथ कह सके कि उसने कभी कोई भूल नहीं की । दिन में कितनी बार हम तेरे 'कार्य' के विरुद्ध अपराध करते हैं और हमेशा तेरी कृपा उन्हें मिटा देने के लिए आ जाती है ।
'तेरी कृपा' के हस्तक्षेप के बिना हम बहुधा तेरे वैश्व न्याय के विधान' के अपरिहार्य खड़्ग के नीचे आते ।
यहां प्रत्येक व्यक्ति समाधान के लिए किसी-न-किसी असम्भवता का प्रतिनिधि है लेकिन 'तेरी भागवत कृपा' के लिए सब कुछ सम्भव है । 'तेरा कार्य' सम्पन्न होगा समग्रतया और ब्योरे के साथ इन सारी असम्भवताओं को दिव्य उपलब्धियों में रूपान्तरित करने से । १५ जनवरी, १९३३
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'भागवत कृपा' , 'तेरी' भलाई अनन्त है । हम 'तेरे' आगे कृतज्ञता के साथ नमन करते हैं ।
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माताजी
'भागवत कृपा' का मूल आधार क्या हे ? क्या 'परम जननी' 'अपनी कृपा' के साथ हमेशा उन लोगों के लिए तैयार नहीं रहतीं जो उसे नीचे बुला सकें ?
हां ।
क्या नहीं हे कि भगवान् की खोज करने वालों में से अधिकतर उसे नीच नहीं बुला सकते ? फिर भी यदि किसी गुरु या अवतार ने
९१ उसे एक बार अपने अन्दर उतार लिया है तो वे भी उसे पा सकते हैं । क्या नहीं हे है ?
हां ।
तो क्या हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते कि 'भागवत कृपा' उस स्थिति में ज्यादा तरह काम कर जब वह धरती की चेतना में स्थापित हो चुकी हो ? क्या आपके प्रयास का लक्ष्य उसे स्थायी रूप से स्थापित करना है ?
हा ।
कृपया मुझे सारा सिद्धान्त समजाझाइये ।
'भागवत कृपा' को शब्दों ओर मानसिक सूत्रों के द्वारा नहीं समझाया जा सकता । ७ अप्रैल १९३१
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केवल 'भागवत कृपा' ही शान्ति, सुख, शक्ति, प्रकाश, ज्ञान, आनन्द और प्रेम को उनके सार और सत्य के साथ प्रदान कर सकती है । ३० नवम्बर, १९५४
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'भागवत कृपा' के सामने कौन योग्य है और कौन अयोग्य ? सभी तो उसी एक दिव्य 'मां' के बालक हैं । 'उनका' प्रेम उन सब पर समान रूप से फैला हुआ है । लेकिन 'वे' हर एक को उसकी प्रकृति और ग्रहणशीलता के अनुसार देती हैं ।
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९२ कहो--''मुझे भगवान् की कृपा मिली है, मुझे उसके योग्य बनना चाहिये'' , तो सब कुछ ठीक होगा ।
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आओ, हम अपने-आपको निःशेष भाव से भगवान् के अर्पण कर दें, इस तरह हम भागवत कृपा को अच्छी-से-अच्छी तरह पा सकेंगे ।
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'भागवत कृपा' सबके लिए समान रूप से है, लेकिन हर एक उसे अपनी सचाई के अनुसार पाता है । वह बाहरी परिस्थितियों पर नहीं, सच्ची अभीप्सा और उद्घाटन पर निर्भर होती है ।
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भगवान् की दी हुई कृपा का समुचित उपयोग : कोई विकृति नहीं, कोई ह्रास नहीं, कोई अति नहीं-स्पष्ट सचाई ।
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'भागवत कृपा' की 'पुकार' : शोर मचाती हुई नहीं परन्तु सतत और जो सुनना जानते हैं उनके लिए बहुत गोचर ।
भागवत सहायता
जब भी कभी सचाई और सद्भावना होती है, 'भगवान्' की सहायता भी वहां रहती है । ११ अप्रैल, १९५४
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अपने समर्पण में हमेशा अनन्य भाव से रहो और अपनी अभीप्सा में सच्चे निष्कपट तो तुम हमेशा भगवान् की सहायता और उनके पथ-प्रदर्शन
९३ की उपस्थिति का अनुभव करोगे ।
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भगवान् की सहायता हो तो कुछ भी असम्भव नहीं है । ७ जून १९५४
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भगवान् की सहायता के बिना किसी के लिए भी साधना सम्भव न होगी । लेकिन सहायता हमेशा मौजूद है ।
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सहायता हमेशा मौजूद रहती है । यह तो तुम्हें ही अपनी ग्रहणशीलता को जीवित-जाग्रत् रखना है । कोई मनुष्य जितना ग्रहण कर सकता है, उससे कहीं अधिक विपुल होती है भगवान् की सहायता । २८ दिसम्बर, १९७२
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जो चैत्य द्वारा अहंकार पर स्वामित्व पाकर ग्रहणशील बन सकेंगे, वे ही जानेंगे कि यह सहायता क्या है और वे ही उसका पूरा लाभ उठा सकेंगे ।
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हर एक को उसका अवसर दिया जाता है और सभी के लिए सहायता उपस्थित रहती है--लेकिन हर एक को उसकी सचाई और निष्कपटता के अनुपात में लाभ होता हे ।
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भागवत सहायता : देखने में मर्यादित, क्रिया में शक्तिशाली ।
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